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जयंती 31 अक्टूबर पर विशेष : सरदार पटेल एकता के सूत्रधार

स्वतंत्रता संग्राम से लेकर मजबूत और एकीकृत भारत के निर्माण में सरदार वल्लभभाई पटेल का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। उनका जीवन, व्यक्तित्व और कृतित्व सदैव प्रेरणा के रूप में देश के सामने रहेगा। उन्होंने युवावस्था में ही राष्ट्र और समाज के लिए अपना जीवन समर्पित करने का निर्णय लिया था। इस ध्येय पथ पर वह नि:स्वार्थ भाव से लगे रहे।

गीता में भगवान कृष्ण ने कर्म कौशल को योग रूप में समझाया है। अर्थात अपनी पूरी कुशलता, क्षमता के साथ दायित्व का निर्वाह करना चाहिए। सरदार पटेल ने आजीवन इसी आदर्श पर अमल किया। जब वह वकील के दायित्व का निर्वाह कर रहे थे, तब उसमें भी मिसाल कायम की। जब वह जज के सामने जिरह कर रहे थे, तभी उन्हें एक टेलीग्राम मिला, जिसे उन्होंने देखा और जेब में रख लिया। उन्होंने पहले अपने वकील धर्म का पालन किया, उसके बाद घर जाने का फैसला लिया। तार में उनकी पत्नी के निधन की सूचना थी।

वस्तुत: यह उनके लौहपुरुष होने का भी उदाहरण था। ऐसा नहीं कि इसका परिचय आजादी के बाद उनके कार्यो से मिला, बल्कि यह उनके व्यक्तित्व की बड़ी विशेषता थी। इसका प्रभाव उनके प्रत्येक कार्यो में दिखाई देता था।

बचपन में फोड़े को गर्म सलाख से ठीक करने का प्रसंग भी ऐसा ही था। तब बालक वल्लभभाई अविचलित बने रहे थे। यह प्रसंग उनके जीवन को समझने में सहायक है। आगे चलकर इसी विशेषता ने उन्हें महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और कुशल प्रशासक के रूप में प्रतिष्ठित किया। देश को आजाद करने में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया। महात्मा गांधी के चंपारण सत्याग्रह के साथ ही कांग्रेस में एक बड़ा बदलाव आया था। इसकी गतिविधियों का विस्तार सुदूर गांव तक हुआ था।

लेकिन इस विचार को व्यापकता के साथ आगे बढ़ाने का श्रेय सरदार पटेल को दिया जा सकता है। उन्हें भारतीय सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था की भी गहरी समझ थी। वह जानते थे कि गांवों को शामिल किए बिना स्वतंत्रता संग्राम को पर्याप्त मजबूती नहीं दी जा सकती।

वारदोली सत्याग्रह के माध्यम से उन्होंने पूरे देश को इसी बात का संदेश दिया था। इसके बाद भारत के गांवों में भी अंग्रेजों के खिलाफ आवाज बुलंद होने लगी थी। देश में हुए इस जनजागरण में सरदार पटेल की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी। इस बात को महात्मा गांधी भी स्वीकार करते थे। सरदार पटेल के विचारों का बहुत सम्मान किया जाता था । उनकी लोकप्रियता भी बहुत थी। स्वतंत्रता के पहले ही उन्होंने भारत को शक्तिशाली बनाने की कल्पना कर ली थी।

संविधान निर्माण में भी उनका बड़ा योगदान था। इस तथ्य को डॉ. अंबेडकर भी स्वीकार करते थे। सरदार पटेल मूलाधिकारों पर बनी समिति के अध्यक्ष थे। इसमें भी उनके व्यापक ज्ञान की झलक मिलती है। उन्होंने अधिकारों को दो भागों में रखने का सुझाव दिया था। एक मूलाधिकार और दूसरा नीति-निर्देशक तत्व।

मूलाधिकार में मुख्यत: राजनीतिक, सामाजिक, नागरिक अधिकारों की व्यवस्था की गई। जबकि नीति निर्देशक तत्व में खासतौर पर ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर ध्यान दिया गया। इसमें कृषि, पशुपालन, पर्यावरण, जैसे विषय शामिल है। इन्हें आगे आने वाली सरकारों के मार्गदर्शक के रूप में शामिल किया गया। बाद में न्यायिक फैसलों में भी इसकी उपयोगिता स्वीकार की गई। यहां इस प्रसंग का उल्लेख अपरिहार्य था।

सरदार पटेल भारत की मूल परिस्थिति को गहराई से समझते थे। वह जानते थे कि जब तक अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान महत्वपूर्ण बना रहेगा, तब तक संतुलित विकास होता रहेगा। इसके अलावा गांव से शहरों की ओर पलायन नहीं होगा। गांव में ही रोजगार के अवसर उपलब्ध होंगे। आजादी के बाद भारत को एक रखना बड़ी समस्या थी।

अंग्रेज जाते-जाते अपनी कुटिल चाल चल गए थे। साढ़े पांच सौ से ज्यादा देशी रियासतों को वह अपने भविष्य के निर्णय का अधिकार दे गए थे। उनका यह कुटिल आदेश एक षड्यंत्र जैसा था। वह दिखाना चाहते थे कि भारत अपने को एक नहीं रख सकेगा। देश के सामने आजाद होने के तत्काल बाद इतनी रियासतों को एक रखने की चुनौती सामने थी। सरदार पटेल ने बड़ी कुशलता से एकीकरण का कार्य संपन्न कराया। इसमें भी उनका लौहपुरुष व्यक्तित्व दिखाई देता है।

उन्होंने देशी रियासतों की कई श्रेणियां बनाईं। सभी से बात की। अधिकांश को सहजता से शामिल किया। कुछ के साथ कठोरता दिखानी पड़ी। सेना का सहारा लेने से भी वह पीछे नहीं हटे, मतलब देश की एकता को उन्होंने सर्वोपरि माना। आजादी के बाद उन्हें केवल तीन वर्ष ही देश सेवा का अवसर मिला। इसी अल्प अवधि में उन्होंने बेमिसाल कार्य किए।

सरदार पटेल की ईमानदारी ऐसी कि निधन के बाद खोजबीन किए जाने पर उनकी निजी संपत्ति के नाम पर कुछ नहीं था। लेकिन उनके प्रति देश की श्रद्धा और सम्मान का खजाना उतना ही समृद्धशाली था। यह उनकी महानता का प्रमाण है।

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