आधुनिक मनोविज्ञान में या सार्वजनिक व्यवहार या कारपोरेट ट्रेनिंग्स में प्रचलित मोटिवेशन जिस मनोविज्ञान पर काम करता है वो अधिकतर मौकों पर आत्मसम्मोहन और इच्छित शुभ के प्रोजेक्शन का खेल मात्र है।
इसे योगसूत्र में वर्णित “धारणा” के पाखण्ड की मदद से समझा जा सकता है।
योग में वर्णित धारणा एक घिनौनी तकनीक है जिसमे व्यक्तिगत और सामूहिक सम्मोहन का उपाय किया जाता है। इस धारणा के बाद ध्यान का जो चरण है वो असल मे धारणा में प्रोजेक्ट की गई कल्पना को अवचेतन तक ठूस देता है। इसीलिए ध्यान धारणा समाधि की महिमा गाने वालों ने “स्टेटस को” या यथास्थिति बनाये रखने के अलावा कुछ नही किया है।
ओशो रजनीश जैसे मदारी बाबाओं ने धारणा का बहुत प्रचार किया है। असल मे ओशो की वक्तृत्व शैली ही “धारणा इन टेक्स्ट” है। वे सुन्दर शब्दों की कूची से खुली आंखों के लिए धारणा पेण्ट करते हैं। इस काम को करते हुए वे प्राचीन के महिमामंडन और प्राचीन दलदल की सडांध में यूरोपीय परफ्यूम का छिड़काव दोनों करते हैं। यही काम विवेकानन्द और अरविंद ने किया है।
लेकिन इस पूरे घनचक्कर में समाज मे रत्ती भर भी बदलाव नही होता। जो बदलाव हुआ भी है वो पश्चिमी आधुनिकता ने दिया है – जिसको ये मदारी बाबा लोग गालिया देते हैं।
मोटिवेशन और योगसूत्र की धारणा में कोई खास अंतर नहीं। विशेषरूप से तब जबकि मोटिवेशनल गुरु आध्यात्मिक बिंबों का इस्तेमाल इसके लिए करते हैं। अभी जर्मनी में एकहार्ट टोले जिस तरह से मोटिवेट कर रहे हैं वो एक सही तरीका है।
पारंपरिक और आधुनिक मोटिवेशन असल में धारण और सम्मोहन के उसी पुराने सूत्र पर कुछ विधायक कॉस्मेटिक व्याख्याओं / बदलावों के साथ काम करता है। लेकिन मजे की बात ये कि उस पुरानी धारणा और इस नई मोटिवेशन से व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं होता- और यही इनका लक्ष्य है। ध्यान धारणा समाधि सहित आधुनिक कारपोरेट ट्रेनिंग के मोटीवेशन दोनों का कुल मकसद व्यक्तित्व विकास को कंडीशन करते हुये यथास्थिति को बनाये रखना है।
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