क्या यह वाकई सोचने की बात नहीं है कि अन्ना टीम के नाम पर एकत्र हुए सवर्ण वर्चस्व की मानसिकता के लोग समानांतर सरकार ही नहीं, समूची व्यवस्था ही समानांतर रूप से चलाना चाहते हैं। संवैधानिक संसद में इन्हें विश्वास नहीं और लोकपाल के नाम पर सारी शक्तियाँ एक ऐसे केंद्र को सौंपने जा रहे हैं जिसकी जनता के प्रति कोई जवाबदेही नहीं होगी और न ही उसे जनता चुनेगी।
कमाल की बात यह है कि यह केजरीवाल, प्रशांत भूषण और किरण बेदी की टीम राजनीतिक दल बनाकर किसी तरह का परिवर्तन नहीं लाना चाहती। यह भीड़ जोड़कर हाथ उठवा कर अपनी बात का समर्थऩ करवा लेने में यकीन रखते हैं और कहते हैं कि यही संसद सबसे बड़ी है। चुनाव लड़ने में यह दिलचस्पी नहीं रखते, लेकिन काम सारे वही करना चाहते हैं, जो निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को सौंपे गए हैं।
इनकी खुद की संसद भी है, जिसे ये कोर कमेटी कहते हैं। कोर कमेटी के सदस्यों के रूप में इनके मंत्री भी हैं, जो स्वयंभू हैं। कानून के मसौदे तैयार करने वाली इनकी स्टेंडिंग कमेटी भी है। अब कमाल की बात यह है कि इऩ्होंने अपना चुनाव आयोग भी अलग बना लिया है। ये तमाम नेताओं के क्षेत्रों में जा-जाकर जनमत सर्वेक्षण करवा रहे हैं। अदालत को प्रशांत भूषण मैनेज करते हैं, यह बात एक सीडी में कही जा रही है। वैसे भी लोकपाल में न्यायिक अधिकार भी समाहित करके यह सुप्रीम कोर्ट के अधिकार भी कम करना चाहते हैं।
तो सवाल यह है कि इस लोकतंत्र के समानांतर तानाशाही वाला अन्ना का लोकतंत्र क्या बेहतर रहेगा..मुझे तो लगता है कि अरविंद केजरीवाल को मौजूदा लोकतंत्र में यही खामी लगती है कि वे किसी भी तरह से आरक्षण खत्म नहीं करवा पा रहे हैं। और, इसीलिए यह सारी कवायद की जा रही है। यह पहलू कम खतरनाक नहीं है। आज इस पर विचार नहीं किया गया और इनके खतरनाक इरादों को नहीं समझा गया तो भ्रष्टाचार के नाम पर लोकतंत्र को हाईजैक करने की कोशिश में तो नहीं है..
क्या ऐसा तो नहीं कि एक बार राम मंदिर के नाम पर भारतीय जनता पार्टी ने देश को भावनात्मक ज्वार में लपेटकर सत्ता हथिया ली थी और फिर पूरे देश में सरकारी कंपनियों को बेचकर निजी हाथों में सौंपने का दुष्चक्र चला दिया था। मुख्य उद्देश्य वहां भी आरक्षण को बेमानी करना था क्योंकि निजी कंपनियों में आरक्षण नहीं देना पड़ता है।
साभार : महेंद्र यादव (लेखक दिल्ली के बरिष्ठ पत्रकार है )
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