कल एक स्विस प्रोफेसर से बात हो रही थी, वे मध्यकालीन यूरोप के सामाजिक ताने बाने की बात बता रहे थे। सामाजिक मानवशास्त्र के विशेषज्ञ के रूप में उनका यूरोप, साउथ एशिया, अफ्रीका और मिडिल ईस्ट का गहरा अध्ययन रहा है।
उनकी बातों में जनसामान्य और "नोबेल्स" (श्रेष्ठीजन) की दो श्रेणियों का जिक्र निकला। असल में बात यूँ निकली कि क्या यूरोप में वर्ण व्यवस्था या जाति व्यवस्था जैसा कुछ रहा है? चर्चा में उन्होंने बताया कि अमीर गरीब और सामान्य, नोबेल का अंतर जरूर रहा है लेकिन कोई भी सामान्य व्यक्ति या गरीब कारीगर किसान मजदूर या कोई अन्य पिछड़ा आदमी या स्त्री अपनी योग्यता के बल पर ऊपर की नोबेल श्रेणियों में प्रवेश कर सकता/ सकती था/थी। इन श्रेणियों के विभाजन पत्थर की लकीर की तरह कभी नहीं रहे जैसा कि भारत मे होता है।
ये सिर्फ किताबी बात नहीं थी, निचली श्रेणियों से ऊंची श्रेणियों में जाने वालों के ऐसे हजारों रिकार्डेड उदाहरण हैं। एक काफी हद तक खुली और योग्यता आधारित व्यवस्था वहां रही है। न सिर्फ सेना, कला, राजनीती, व्यापार बल्कि धर्म और थियोलॉजी में भी जनसामान्य ऊपर तक जा सकते थे और खुद नोबेल्स की ऊंची श्रेणी में शामिल हो सकते थे। इसका अर्थ ये हुआ कि उनके विभाजन एकदम पत्थर की तरह ठोस नहीं थे बल्कि काफी लचीले थे जिसमें सामाजिक, आर्थिक, राजनितिक, शैक्षणिक मोबिलिटी की पूरी गुंजाइश होती थी।
भारत की तरह पैदाइश से वर्ण जाति और योग्यता तय नहीं होती थी।हालाँकि इसके बावजूद वहां जनसामान्य का शोषण और दमन भी उनके अपने ढंग से होता था। लेकिन चूंकि यूरोप में सामाजिक गतिशीलता और मेल जोल संभव था इसलिए शोषण से बचने के उपाय और मौके भी उपलब्ध थे, इस बात ने व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयासों को हर अच्छी बुरी दिशा में प्रेरित किया। बाद में फ्रांसीसी क्रांति ने इस जनसामान्य और नोबेल्स के विभाजन को भी खत्म कर दिया और एक नया किस्म का योग्यता, समता और प्रतियोगिता आधारित समाज बना। इसी ने लोकतंत्र विज्ञान और मानव अधिकार सहित मानव गरिमा की धारणाओं को विक्सित किया। इस क्रान्ति ने पूरी दुनिया को बहुत ढंगों से प्रभावित किया और सभ्यता की दिशा में निर्णायक ढंग से आगे बढ़ाया।
इसीलिये यूरोप इतनी तरक्की कर पाया और आज भी सभ्यता, ज्ञान, विज्ञान और शक्ति में भी नेतृत्व कर पा रहा है। हालाँकि कोलोनियल लूट का और एशिया अफ्रीका को लूटने का उनका अपराध भी कम नहीं है, आज कैपिटलिज्म का शोषण और दमन भी इन्ही की देन है लेकिन इस सबके बावजूद आज का यूरोप का समाज मानवीय आधार पर सबसे विकसित और सभ्य समाज बन गया है।
ये चर्चा कॉफ़ी बार में हो रही थी जिसमे जाहिर तौर से कम से कम पांच सात अलग अलग देशों के और भिन्न भाषा बोलने वाले या जाहिर तौर पर भिन्न नजर आने वाले लोग एकसाथ बैठकर खा पी रहे थे। वहां मौजूद सौ से अधिक लोगों में हर रूप-रंग, उम्र, कद-काठी, भाषा-भूषा और धर्मों, देशों के लोग थे और बड़े मजे से बिना किसी भेदभाव के बैठे थे। इनमे अधिकांश स्विस नागरिक थे जो अमीर गरीब सहित व्यवहार व्यवसायों वेशभूषा और रुझानों की सभी भिन्नताओं और विशेषताओं के साथ परस्पर सम्मान के साथ वहां बैठे बतिया और खा पी रहे थे।
क्या ऐसे कॉफ़ी बार या रेस्टोरेंट और सामाजिक सौहार्द्र की कल्पना भारत के समाज में कस्बों और ग्रामीण स्तर तक की जा सकती है? और इसके होने या न होने की स्थिति में भारत के समाज और सभ्यता के बारे में कोई टिप्पणी की जा सकती है?
इसके उत्तर में वे प्रोफेसर बोले कि पिछले चालीस सालों में उनका भारत का जो अनुभव है उसके अनुसार ऐसी समानता की कल्पना भारत में धीरे-धीरे कठिन होती जा रही है। ऊपर-ऊपर लोग एकदूसरे के साथ मिलते जुलते जरूर हैं लेकिन असली सामाजिक एकीकरण की संभावना कम होती जा रही है। शहरीकरण की धमक में होटल रेस्टोरेंट ट्रेन बस आदि में भारतीय एकसाथ बैठे जरूर नजर आते हैं लेकिन अंदर-अंदर वे बहुत दूर होते हैं। इस तरह के एकीकरण का सीधा आशय विभिन्न जातियों में सामाजिक मेलजोल सहित विवाह और भोजन की संभावना से जुड़ा है।
जब तक लोगों के विवाह, व्यवसाय, सहभोज, राजनीति और पहचान का आधार जाति नाम की व्यवस्था बनी रहेगी तब तक भारत में वास्तविक विकास और सभ्यता असंभव है, अब न सिर्फ जातिवाद बल्कि प्रदूषण, कुपोषण जनसँख्या के दबाव अशिक्षा बेरोजगारी और भ्रष्टाचार सहित साम्प्रदायिक वैमनस्य से भारत का समाज तेजी से कमजोर होगा। और इसका सबसे बुरा असर भारत के गरीबों पर पड़ेगा।
दोस्तों, इस बात को नोट कीजिये, भारत की सबसे बड़ी समस्या आज भी वही है जिससे सौ साल पहले ज्योतिबा अंबेडकर और पेरियार जूझ रहे थे, या छह सौ साल पहले कबीर और रैदास जूझ रहे थे। भारत को सभ्य और समर्थ बनाने की राह में सबसे बड़ी रुकावट यह जातिवाद ही है। इसके खिलाफ जो संघर्ष है वो असल मे भारत को सभ्य बनाने का संघर्ष है। कबीर, रैदास, फूले, अंबेडकर और पेरियार का संघर्ष असल मे भारत को सभ्य बनाने का ऐतिहासिक और सबसे लंबा संघर्ष है।
-संजय श्रमण जोठे
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